-दिनेश ठाकुर
हरे पत्तों के वंदनवारों से सजे द्वार, आंगन में बिखरे रंग-बिरंगे फूल, गलियों-रास्तों में उड़ता गुलाल, मंजीरे-ढोल के शोर पर नाचती-लहराती सुंदरियां, उत्सव के उल्लास में धमाल करते लोगों के झुंड- ऐसी जाने कितनी तस्वीरें फिल्मी पर्दें पर कितनी बार सजाई जा चुकी हैं। हिन्दी सिनेमा अगर रंग-बिरंगे होली-गीतों के मामले में काफी समृद्ध रहा है तो कुछ ऐसी फिल्में भी बनी हैं, जिनका कथानक होली के इर्द-गिर्द बुना गया। याद आती है मधुबाला और भारत भूषण की 'फागुन' (1958), जिसने बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा दिया था। इस धमाल के पीछे ओ.पी. नैयर की धुनों वाले 'इक परदेसी मेरा दिल ले गया' और 'तुम रूठके मत जाना' जैसे गानों का बड़ा हाथ रहा।
निर्देशक विभूति मित्रा की इस 'फागुन' के बाद लेखक-निर्देशक राजिन्दर सिंह बेदी ने 1973 में इसी नाम से फिल्म बनाई, जिसमें होली पर बिछुड़े नायक-नायिका (धर्मेंद्र, वहीदा रहमान) बरसों बाद मिलते हैं। फिल्म में लता मंगेशकर का निहायत सुरीला होली-गीत था - 'पिया संग खेलो होली फागुन आयो रे' (संगीत : एस.डी. बर्मन)। इससे पहले 1970 में एक फिल्म 'होली आई रे' (शत्रुघ्न सिन्हा, माला सिन्हा) नाम से आ चुकी थी। इसमें लता मंगेशकर और मुकेश का गाया 'मेरी तमन्नाओं की तकदीर तुम संवार दो' खूब चला था। गिरीश कर्नाड के निर्देशन में बनी 'उत्सव' में होली का एक लम्बा दृश्य था, जिसे मदनोत्सव कहा गया। संस्कृत के दो चर्चित नाटकों 'चारूदत्त' और 'मृच्छकटिक' पर आधारित इस फिल्म में जो मदनोत्सव दिखाया गया, उसे गुप्त काल का सबसे रंगीला त्योहार माना जाता था। कालांतर में इसी ने होली का रूप धारण कर लिया। रेखा, शशि कपूर, अमजद खान, शेखर सुमन वगैरह ने इस फिल्म में काफी जलवे बिखेरे। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने यहां शास्त्रीय धुनों वाले कई मीठे गीत रचे थे। इनमें 'मन क्यों बहका' (लता मंगेशकर, आशा भौसले) से उत्सव की उमंग छन-छनकर महसूस होती है।
रंग-पर्व पर एक उल्लेखनीय फिल्म 1984 में आई। इसका नाम ही 'होली' था। बतौर नायक यह आमिर खान की पहली फिल्म थी। तब वह स्टार नहीं, सिर्फ अभिनेता थे। निर्देशक केतन मेहता की इस फिल्म में होली को एकदम अलग पृष्ठमूमि में फिल्माया गया। फिल्म में कॉलेज कैम्पस के एक दिन की कहानी है। होली के दिन कॉलेज प्रशासन की तरफ से ऐलान किया जाता है कि होली की छुट्टी नहीं होगी, भारतीय संस्कृति पर भाषण होगा, इसमें सबका शामिल होना जरूरी है। छात्र भड़क उठते हैं। उनके अलग-अलग गुट आपस में भिड़ जाते हैं, किताबों की होली जलाई जाती है और प्रिंसिपल पर टमाटर-अंडे फेंके जाते हैं। इसी बीच, एक छात्र अपमान से त्रस्त होकर आत्महत्या कर लेता है। इधर पुलिस छात्रों की धरपकड़ करती है और उधर भीड़ होली खेलती नजर आती है। युवाओं के उन्माद से उपजे पागलपन को केतन मेहता ने बड़े मार्मिक ढंग से पर्दे पर उतारा। क्षणिक होते हुए भी व्यापक अराजकता कैसे पैदा होती है, इसे फिल्म तल्ख अंदाज में बयान करती है।
आमिर खान के अलावा नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, डॉ. श्रीराम लागू और आशुतोष गोवारीकर (जिन्होंने इस फिल्म के 16 साल बाद 'लगान' बनाकर इतिहास रचा) की लाजवाब अदाकारी 'होली' का एक और उजला पहलू है। केतन मेहता इससे पहले 'भवनी भवई' (1980) बनाकर सुर्खियों में आए थे। 'होली' के बाद उनकी 'मिर्च मसाला' (स्मिता पाटिल, नसीरुद्दीन शाह) ने भी सुर्खियां और इनाम बटोरे, लेकिन बाद में वह 'हीरो हीरालाल' (1989), 'ओह डार्लिंग ये है इंडिया' (1995) और 'आर या पार' (1997) जैसी बेसिर-पैर की फिल्मों की भूल-भुलैया में खुद भी भटके, दर्शकों को भी भटकाते रहे।
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