-दिनेश ठाकुर
जोश मलीहाबादी का शेर है- 'तबस्सुम (मुस्कुराहट) की सजा कितनी कड़ी है/ गुलों को खिलके मुरझाना पड़ा है।' गुल तो खैर खिलकर मुरझाते हैं, लेकिन उन मासूम बच्चियों को किस बात की सजा दी जाती है, जिन्हें दुनिया में आकर मुस्कुराने से पहले गर्भ में मार दिया जाता है? देवियों को पूजने वाले भारतीय समाज में कन्या भ्रूण हत्या ( Female Infanticide) ऐसा नासूर बन गया है, जिस पर किसी इलाज का असर होता नहीं लगता। सख्त कानून और गर्भस्थ शिशु के लिंग-परीक्षण ( Sex-selective Abortion ) के लिए अल्ट्रासाउंड मशीनों (सोनोग्राफी) के इस्तेमाल पर रोक के बावजूद कन्या भ्रूण हत्या का सिलसिला बदस्तूर जारी है। दो साल पहले के आर्थिक सर्वेक्षण का यह आंकड़ा चौंकाने वाला था कि आजादी के बाद से 2018 तक करीब 6.3 करोड़ बच्चियों को दुनिया में आने से पहले मार दिया गया।
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बिहार के एक गांव के 2050 के माहौल की कल्पना
कुदरत की अपनी खास संतुलित लय होती है। लोग जब इस लय को तोड़ते हैं, तो इसका कैसा खामियाजा भुगतना पड़ता है, इसकी आंखें खोलने वाली तस्वीरें मनीष झा की फिल्म 'मातृभूमि' (2003) में देखने को मिली थीं। कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ भारतीय सिनेमा की यह पहली बुलंद आवाज थी। फिल्म में बिहार के एक गांव के 2050 के माहौल की कल्पना की गई। महिलाओं के नाम पर इस गांव में सिर्फ वृद्ध महिलाएं बची हैं, लेकिन पुरुषों की आबादी बेशुमार है। गांव की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सभी जवान लड़के कुवांरे घूम रहे हैं, क्योंकि गांव में लड़कियां हैं ही नहीं। कन्या भ्रूण हत्या गांव के लिए श्राप बन गई। दूसरे गांवों के लोग अपनी लड़कियों की शादी इस गांव में नहीं करना चाहते- बच्चियों को गर्भ में मारने वालों को लड़कियां क्यों दी जाएं। जब सिरफिरों के हाथ में पत्थर होता है, तो उन्हें शीशे तोडऩे में मजा आता है। लेकिन अगर शीशे के हाथ में पत्थर आ जाए, तो सिरफिरों की कैसी दुर्दशा हो, 'मातृभूमि' में इसे असरदार ढंग से पेश किया गया।
हरियाणा की कजरिया नाम महिला की कहानी
सिनेमा को सामाजिक सरोकारों से जोडऩे के हिमायती कुछ और फिल्मकारों ने कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ उस मशाल को आगे बढ़ाया, जो 'मातृभूमि' ने जलाई थी। रामनिवास शर्मा की 'आठवां वचन' कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ लोगों को जागरूक करने के साथ बेटियों को पढ़ाने पर भी जोर देती है। निर्देशक रामपाल मलिक की शॉर्ट फिल्म 'एंड ऑफ द बिगनिंग' सिर्फ 20 मिनट में उन लोगों को बेनकाब कर देती है, जो कन्या भ्रूण हत्या को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से बढ़ावा देते हैं। मधुरिता आनंद की 'कजरिया' में हरियाणा के एक गांव की कजरिया नाम की महिला की कहानी पेश की गई, जिसने कन्या भ्रूण हत्या को कारोबार बना रखा है। ऐसे मामलों से बचने की तमाम गलियों की उसे जानकारी है। 'कजरिया' को सिनेमाघरों में पहुंचने के लिए लम्बा इंतजार करना पड़ा। इसे 2013 में दुबई के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिखाया गया था, लेकिन भारत में इसे दो साल बाद 2015 में सिनेमाघर नसीब हुए। 'बैगिंग फॉर ब्रीद' कन्या भ्रूण हत्या पर एक और उल्लेखनीय शॉर्ट फिल्म है।
शुक्रवार को डिजिटल प्रीमियर
अब कन्या भ्रूण हत्या पर हॉरर फिल्म 'काली खुही' (काला कुआं) ( Kaali Khuhi Movie ) बनाई गई है। शुक्रवार को एक ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इसका डिजिटल प्रीमियर होगा। निर्देशक टैरी समुंद्र की यह फिल्म दस साल की बच्ची शिवांगी (रेवा अरोड़ा) की आंखों से पंजाब के एक गांव की अजीबो-गरीब घटनाओं का जायजा लेती है, जिन्हें गांव वालों ने भूत-प्रेत से जोड़ रखा है। फिल्म को लेकर उम्मीदें इसलिए भी बढ़ती हैं कि इसमें शबाना आजमी ( Shabana Azmi ) ने भी अहम किरदार अदा किया है। 'मकड़ी' के बाद यह उनकी दूसरी हॉरर फिल्म है। अगस्त में आई 'मी रक्सम' (मेरा नाच) में लाजवाब अदाकारी से वे फिर साबित कर चुकी हैं कि 70 साल की उम्र में भी उनकी गिनती दुनिया की बेहतरीन अभिनेत्रियों में क्यों होती है।
पहली बार लम्बा और चुनौतीपूर्ण किरदार
रेवा अरोड़ा ( Riva Arora ) के कॅरियर के लिए 'काली खुही' टर्निंग प्वॉइंट हो सकती है। रेवा जब फिल्मों में सक्रिय हुई थीं, तब सिर्फ डेढ़ साल की थीं। बतौर बाल कलाकार रणवीर कपूर की 'रॉकस्टार' उनकी पहली फिल्म थी। इसके बाद वे श्रीदेवी की 'मॉम', सलमान खान की 'भारत' और श्रद्धा कपूर की 'हसीना पारकर' के अलावा हॉलीवुड की 'बेस्ट फ्रेंड' में भी नजर आ चुकी हैं। 'काली खुही' में पहली बार उन्हें लम्बा और चुनौतीपूर्ण किरदार मिला है। फिल्म के बाकी कलाकारों में संजीदा शेख, सत्यदीप मिश्रा, लीला सेमसेन, हेतवी भानुशाली, सेमुअल जॉन और पूजा शर्मा शामिल हैं। मनोरंजन के साथ-साथ अगर यह फिल्म कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जागरुकता के सिलसिले को थोड़ा भी आगे बढ़ाती है, तो इसे बड़ी उपलब्धि माना जाएगा।
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