-दिनेश ठाकुर
संजीव कुमार ( Sanjeev Kumar ) की पहली फिल्म 'निशान' 13 अगस्त, 1965 को सिनेमाघरों में पहुंची थी। उन दिनों भारत और पाकिस्तान के युद्ध को लेकर देश में ब्लैक आउट चल रहा था। 'निशान' सी ग्रेड की स्टंट फिल्म थी, लेकिन इसमें 'हाय तबस्सुम तेरा' गाते संजीव कुमार का चेहरा लोगों की यादों में बस गया। राजिन्दर सिंह बेदी की 'दस्तक' के लिए 1971 में संजीव कुमार ने पहली बार नेशनल अवॉर्ड ( National Aawrd ) जीता। उन दिनों भी भारत और पाकिस्तान के बीच दूसरे युद्ध ( India Pakistan War ) को लेकर देश में ब्लैक आउट ( Black Out ) लागू था। अटक-अटक कर करीब 20 साल में पूरी हुई संजीव कुमार की 'लव एंड गॉड' ( Love and God Movie ) 1986 में सिनेमाघरों में उतारी गई। उस समय देश में अमन-चैन था, लेकिन 6 नवम्बर को दिल का दौरा 48 साल के संजीव कुमार की जिंदगी के लिए ब्लैक आउट साबित हुआ।
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दिल में झनझनाते थे नाकाम प्रेम के तार
के. आसिफ ने 'लव एंड गॉड' गुरुदत्त ( Guru Dutt ) को लेकर शुरू की थी। उनके देहांत के बाद आसिफ की लम्बी खोज संजीव कुमार पर आकर ठहरी। उनका कहना था कि संजीव की आंखों में उदास प्रेमी की छटपटाहट महसूस होती है। बदकिस्मती से के. आसिफ 'लव एंड गॉड' को अधूरी छोड़ दुनिया से कूच कर गए। बाद में जैसे-तैसे फिल्म पूरी की गई। गुरुदत्त और संजीव कुमार में जन्म की तारीख (9 जुलाई) के अलावा कई और समानताएं हैं। दोनों अदाकारी में सहजता और सादगी के हिमायती थे, दोनों के दिलों में नाकाम प्रेम के तार झनझनाते रहे, दोनों की जिंदगी पर जवानी में मौत का पर्दा गिरा।
जो भी किरदार मिला, छा गए
किसी फिल्मी सितारे और अभिनेता में बड़ा फर्क यह होता है कि सितारा इमेज के तय दायरे में परिक्रमा करता है, जबकि अभिनेता इस तरह के बंधन से आजाद होता है। वह सिर्फ अभिनय के दम पर अपने लिए नए-नए रास्ते बनाता है। संजीव कुमार उम्रभर अभिनेता के तौर पर फिल्मों में टिके रहे। 'जो भी किरदार मिले, छा जाओ' उनका मंत्र था। उनके शुरुआती दौर की 'बचपन', 'गुनाह और कानून', 'रिवाज', 'बम्बई बाइ नाइट' जैसी फिल्मों की कहानी भले लोग भूल गए हों, इनमें संजीव कुमार के किरदार कइयों को याद हैं। संजीव कुमार न बढ़ते मोटापे से घबराए और न उन्होंने साधारण 'आउटफिट' की परवाह की। गहरी संवेदनशीलता के साथ वे खुद को किसी भी किरदार में ढाल लेते थे। रूमानी नौजवान से वृद्ध तक और मंदबुद्धि नौजवान से वैज्ञानिक तक के किरदार उन्होंने गहरी निष्ठा और पूरी ईमानदारी से अदा किए।
तालियां नहीं, दिल जीतते थे
फिल्म में उनकी एंट्री पर उस तरह तालियां नहीं बजती थीं, जिस तरह सितारों के आने पर बजती हैं, लेकिन पूरी फिल्म में उनका अभिनय मोम की तरह पिघल कर कुछ ऐसी तासीर पैदा कर देता था कि कई दिन तक उनका चेहरा जेहन में बसा रहता था। चाहे किरदार मूक-बधिर का हो (कोशिश), बदले की आग में झुलसते वृद्ध का (शोले), मानसिक संतुलन खो चुके प्रेमी का (खिलौना), कोढ़ी का (नया दिन नई रात) या फिर दिलफेंक प्रौढ़ का (पति, पत्नी और वो), संजीव कुमार बड़ी सूझ-बूझ से उसमें धड़कनें पैदा करते थे। 'संघर्ष' और 'विधाता' में दिलीप कुमार के सामने भी उनके अभिनय की सहजता कायम रही, तो 'त्रिशूल' में शशि कपूर और अमिताभ बच्चन के बीच उनकी मौजूदगी भी शिद्दत से महसूस हुई। कई सितारे एक्टिंग के लिए मौके की तलाश में रहते हैं, संजीव कुमार के लिए हर फिल्म खुद को साबित करने का मौका थी, जो उन्होंने किया और बखूबी किया।
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