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तब 50 किलो के लोहे के बक्से में आती थी रील, अब खास कोड से दिखाई जाती है फिल्म

जब से भारत में सिनेमा की शुरुआत हुई है तब से इसमें समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं। पहले ब्लैक एंड वाइट फिल्में होती थीं। इसके बाद सिनेमा रंगीन हो गया। टेक्नोलॉजी के आने से सिनेमा दिखाने के तरीको में भी बदलाव आए हैं। अब सिंगल थियेटर की जगह मल्टीप्लेक्स ने ली है। फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर राज बंसल ने पत्रिका एंटरटेनमेंट के साथ खास बातचीत में इन बदलावों को लेकर किस्से शेयर किए।

लोहे के बक्से में आती थी फिल्म की रील
राज बंसल ने बताया कि अब तो जमाना हाइटैक हो गया है, लेकिन पहले फिल्मोें की रील लोहे के बक्से में आती थीं। ये बक्से सीलबंद होते थे। इनमें जो रील होती थी, वह लैब में टेस्ट होने के बाद पैक की जाती थी, ताकि कोई भी रील से छेड़छाड़ ना कर सके।

तब 50 किलो के लोहे के बक्से में आती थी रील, अब खास कोड से दिखाई जाती है फिल्म

15 से 20 रील में आती थी पूरी फिल्म
एक फिल्म की रील करीब 15 से 20 डिब्बों में आती थी और उन डिब्बों को लोहे के बक्से में पैक किया जाता था। उस बक्से का वजन करीब 50 किलो होता था। उन्हें मुंबई से डिस्ट्रीब्यूटर ट्रेन या बसों के जरिए अपने राज्य में ले जाते थे। वहां से अलग—अलग सिनेमाघरों में गाड़ियों के जरिए रील को पहुंचाया जाता था।

पाइरेसी रोकने के लिए प्लेन से आने लगीं रील
ट्रेन व गाड़ियों में फिल्म की रील के बक्से लाने से पाइरेसी का खतरा होता था। इसे रोकने के लिए बाद में विमान के जरिए फिल्मों की रील मंगाई जाने लगी।

सिनेमाघरों के पास होता है एक हफ्ते का लाइसेंस
डिस्ट्रीब्यूटर जब सिनेमाघरों को फिल्म देते हैं, तो इसे दिखाने के थियेट्रिकल राइट्स एक सप्ताह के लिए दिए जाते हैं। इसके बाद अगर सिनेमाहॉल आगे वही फिल्म दिखाना जारी रखते हैं, तो उन्हें नया एग्रीमेंट करना होता है। जब फिल्में रील में आती थी, तो एक फिल्म की रील करीब 40 से 50 सप्ताह तक काम में लेने लायक होती थीं। उसके बाद वह खराब होना शुरू हो जाती थी।

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रील डेमेज होने पर एसोसिएशन करती थी फैसला
अगर एग्रीमेंट खत्म होने से पहले रील खराब या डेमेज हो जाती थी, तो मामला सीसीसीए एसोसिएशन में जाता था। वे जो फैसला करते थे उसे दोनों पक्षों (डिस्ट्रीब्यूटर और सिनेमाघर) को मानना पड़ता था।

अब सैटेलाइट के जरिए दिखाई जाती हैं फिल्में
इंटरनेट क्रांति का असर सिनेमाघरों और फिल्मों पर भी पड़ा है। अब फिल्में रील में नहीं आतीं बल्कि सैटेलाइट के जरिए दिखाई जाती हैं। राइट्स अब भी डिस्ट्रीब्यूटर के पास ही होते हैं। वे फिल्म के फर्स्ट शो से करीब एक घंटे पहले सिनेमाघरों को एक कोड भेजते हैं, जिसे लाइसेंस कहा जाता है। इस कोड से सिनेमाघर वाले फिल्म को अनलॉक करते हैं और पर्दे पर दिखाते हैं। सिनेमाघरों को अब भी एक हफ्ते का ही लाइसेंस दिया जाता है। उसकी समयावधि खत्म होने के बाद नई फिल्म का लाइसेंस लेना होता है या वही फिल्म जारी रखनी हो, तो भी उसका लाइसेंस दोबारा लेना पड़ता है।

टेक्नोलॉजी से पड़ा क्वालिटी में फर्क
राज बंसल ने बताया कि नई टेक्नोलोजी आने से फिल्मों की गुणवत्ता पहले से अच्छी हो गई है। पहले अगर रील का कोई हिस्सा डेमेज हो जाता था, तो पर्दे पर उसकी क्वालिटी अच्छी नहीं दिखती थी। अब सेटेलाइट के जरिए फिल्में एचडी क्वालिटी में आने लगी हैं। साउंड भी पहले से ज्यादा अच्छा हो गया है। साथ ही अगर रील का कोई हिस्सा डेमेज हो जाता था, तो कभी गाना कट जाता था या फिल्म कभी कुछ मिनट की कम देखने को मिलती थी। अब ऐसा नहीं है, सभी जगह एक जैसी क्वालिटी और पूरी फिल्म देखने को मिलती है। नई तकनीक से पाइरेसी भी कम हुई है।



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तब 50 किलो के लोहे के बक्से में आती थी रील, अब खास कोड से दिखाई जाती है फिल्म तब 50 किलो के लोहे के बक्से में आती थी रील, अब खास कोड से दिखाई जाती है फिल्म Reviewed by N on January 17, 2020 Rating: 5

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