—दिनेश ठाकुर
गांव के कुएं में आदिवासी युवती नागी लाहन्या (स्मिता पाटिल) ( Smita Patil ) का शव पाया जाता है। पुलिस हत्या के आरोप में उसके पति भीखू लाहन्या को गिरफ्तार करती है। मुफलिस भीखू ने फैज के शेर 'मेरी खामोशियों में लरजां (कंपन) हैं/ मेरे नालों (दर्दभरी पुकार) की गुमशुदा आवाज' की तर्ज पर खामोशी ओढ़ रखी है। भले सौ मुजरिम छूट जाएं, लेकिन किसी बेकसूर को सजा नहीं देने के सिद्धांत का पालन करने वाली न्याय व्यवस्था उसके बचाव के लिए नौजवान वकील भास्कर कुलकर्णी (नसीरुद्दीन शाह) ( Naseeruddin Shah ) को नियुक्त करती है, लेकिन न उसके सवालों पर भीखू की खामोशी टूटती है, न सरकारी वकील दुसाने (अमरीश पुरी) ( Amrish Puri ) के सवालों पर। ऐसे में अदालत कैसे तय करेगी कि नागी का कातिल कौन है?
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शोषण, अत्याचार और भ्रष्टाचार
यह किस्सा है बतौर निर्देशक गोविंद निहलानी ( Govind Nihalani ) की पहली फिल्म 'आक्रोश' ( Aakrosh movie 1980 ) का, जिसने हाल ही प्रदर्शन के 40 साल पूरे किए हैं। यह फिल्म 1980 में ऐसे समय आई थी, जब फार्मूला फिल्मों में अकेला नायक तमाम समस्याओं और बुराइयों से लड़कर कामयाबी के झंडे लहरा रहा था। अपनी पहली फिल्म के लिए निहलानी ने ऐसा विषय चुना, जिसे कम फिल्मकार छूते थे- शोषण, अत्याचार और भ्रष्टाचार। इससे पहले इस विषय पर कुछ फिल्मों बनीं भी, तो उनमें एक खलनायक को सारी समस्याओं की जड़ बताकर नायक से उसका काम तमाम करवा दिया गया। 'आक्रोश' ने पहली बार यह कहने की हिम्मत की कि समाज में फैले भ्रष्टाचार, कमजोर वर्ग के शोषण और उन पर अत्याचार के लिए कोई एक आदमी नहीं, पूरी व्यवस्था जिम्मेदार है।
रेप की घटनाओं की गहराई से पड़ताल
फिल्म आदिवासी युवतियों के साथ रेप की घटनाओं के पीछे के कारणों की भी गहराई से पड़ताल करती है। वकील भास्कर जब नागी की हत्या की तह तक जाने की कोशिश में जुटता है, तो इस जानकारी पर उसे यकीन नहीं होता कि नेता, ठेकेदार, डॉक्टर और पुलिस अफसर जैसे समाज के संभ्रांत लोगों ने नागी के साथ रेप किया था। एक सामाजिक कार्यकर्ता उसे कड़वी हकीकत बताता है- 'उससे (भीखू लाहन्या) जुल्म बर्दाश्त नहीं होता था। उसका खून उबलता था। यही उसका सबसे बड़ा गुनाह था। उसको सबक सिखाना था, तो उसकी बीवी के साथ रेप किया इन लोगों ने। यह उसकी खुद्दारी को कुचलने की बड़ी साजिश है।'
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खास पहचान के साथ उभरे ओम पुरी
विजय तेंदुलकर की कहानी पर बनी यह फिल्म कलाकारों के सहज अभिनय के लिए भी याद की जाती है। ओम पुरी इससे पहले 'भूमिका', 'गोधूलि', 'अरविंद देसाई की अजीब दास्तान' समेत कुछ और फिल्मों में काम कर चुके थे, लेकिन सही मायनों में 'आक्रोश' से वे खास पहचान के साथ उभरे। आधी से ज्यादा फिल्म में वे खामोश रहते हैं, लेकिन उनकी आंखों की छटपटाहट और चेहरे का आक्रोश रील-दर-रील महसूस होता है। भीखू लाहन्या के किरदार में वे उत्पीडऩ से गुजरते गरीब आदिवासी ही लगते हैं, जो यह समझ चुका है कि पत्नी की हत्या के बाद उसके इर्द-गिर्द जो घटनाएं घूम रही हैं, नाटक से ज्यादा कुछ नहीं हैं। ऐसे में कुछ बोलने से खामोश रहना ही बेहतर है- 'बेमकसद महफिल से बेहतर तनहाई/ बेमतलब बातों से अच्छी खामोशी।' निहलानी की इस फिल्म को नेशनल अवॉर्ड के अलावा भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में स्वर्ण मयूर अवॉर्ड से भी नवाजा गया था।
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